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शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

देश में शिक्षा का स्तर: समस्या और समाधान

शिक्षा किसी भी देश के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक तत्त्वों में से एक है. एक शिक्षित समाज ही देश को उन्नत और समृद्ध बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. शिक्षा विहीन समाज साक्षात् पशु के समान बताया गया है. संस्कृत के महान कवि श्री भर्तृहरी जी ने स्पष्ट रूप से कहा भी है – “शिक्षा विहीन साक्षात् पशु: पुच्छ विषाणहीन: .” हमारे वैदिक मन्त्रों में भी मंत्रित है – असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय:. इसका अर्थ हुआ कि विद्या अथवा शिक्षा सत्य का, ज्ञान का, अमरता का कारण है. जब शिक्षा हमें अमरता प्रदान कराने में सहायक है तो एक शिक्षित समाज देश को अमर करने में अपनी भूमिका क्यों नही निभा सकता? अब जब शिक्षित समाज की बात उठी है तो सबसे पहले शिक्षित समाज में नाम आता है देश को शिक्षित करने वाले हमारे आदरणीय शिक्षकगण का. अब जब शिक्षकों की बात आई है तो हमें याद आती है आचार्य चाणक्य की जिन्होंने अपना शिक्षण धर्म बखूबी निभाया देश के प्रति भी और समाज के प्रति भी. ऐसे और भी इस देश में बहुत से अनुकरणीय उदाहरण हैं जो शिक्षकों को सम्मानीय स्थान दिलाने में विशिष्ट भूमिका निभाते हैं. परन्तु आज इस देश को जिसे दुनिया जगतगुरु की उपाधि से विभूषित कर चुकी है शिक्षा के स्तर को स्तरीय स्थान दिलाने के लिए भी दो-चार होना पड रहा है. यह बड़े ही दुःख का विषय है कि आज हमारे इस विशाल देश में शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट का सामना करना पड रहा है शिक्षा के सबसे आवश्यक स्तभ विद्यार्थी, शिक्षक और पाठ्यक्रम सभी में लगातार गिरावट आ रही है. इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार?, समाज?, विद्यार्थी? या फिर शिक्षक? मैं कहता हूँ ये सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं. कैसे? सबसे पहले हम बात करते हैं सरकार की. सरकार देश की स्वतन्त्रता के 67 वर्षों बाद भी कोई एक उत्तम शिक्षा नीति का निर्माण नहीं कर पाई हैं और तो और इस देश में आज़ादी के बाद पहली सरकार में जो शिक्षा मंत्रालय था बाद में वह भी स्वतंत्र न रहकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक शिक्षा विभाग के रूप में रह गया है. जिसके पास पहले से ही बहुत से अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य हैं. दूसरे शिक्षा की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था राष्ट्रीय शैक्षणिक विकास एवं अनुसन्धान परिषद (एन. सी. ई. आर. टी.) भी कहीं न कहीं अपनी भूमिका का निर्वहन करने से चूक रही है. तीसरे देश का सबसे बड़ा शिक्षा बोर्ड केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी. बी. एस. ई.) भी एक कारगर कदम उठाने में असमर्थ रहा है. विगत 15 वर्षों में देश के शैक्षणिक कार्यकर्मों में कई छोटे बड़े बदलाव किये गये हैं परन्तु क्या ये बदलाव काफी हैं? क्या इन सभी बदलावों का सकारात्मक असर पड़ा है? हाँ आप यह तो कह सकते है कि अब बोर्ड की परीक्षाओं में अच्छे अंक विद्यार्थियों को प्राप्त हों रहें हैं परन्तु इन प्राप्तांको के पीछे का अंकगणित कुछ अलग किस्म का है ये अंक पाठ्यक्रम के साथ समझौता करके प्रदान किये जा रहें हैं. आज का पाठ्यक्रम 20 वर्ष पहले के पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली के सामने बहुत ही आसान है.

दूसरे अगर हम बात करें समाज की तो दो दशक पहले के समाज में अभिभावक शिक्षकों को भगवान् से भी ज्यादा सम्मान देते और दिलाते थे अपने बच्चे की हर अच्छी बुरी बात से अध्यापक को परिचित कराते थे. बच्चे की गलती पर स्वयं उसे न डांटकर उसके अध्यापकों के सामने उसकी गलती का खुलासा करते थे और अध्यापक उन्हीं के समक्ष बच्चे को समझाते थे और बच्चा भी अपने अध्यापक के हर एक शब्द को अक्षरत: पालन कर उनकी महत्ता को द्विगुणित करता था. परन्तु आज का समय बदल चुका है, परिवार बिखर चुके हैं माता-पिता अपनी एक या दो संतानों को बड़े ही नाजों से पालते हैं ऐसे में उनके बच्चे को किसी भी प्रकार की असुविधा उन्हें गवारा नहीं. जिस देश में भगवान् श्री कृष्ण और सुदामा एक ही आश्रम में शिक्षित हुए हों उस देश में आज विद्यालयों का विभाजन हो चुका है. विद्यार्थियों की योग्यता इन सभी बातों से बुरी तरह से प्रभावित हो रही है. इस कुप्रभाव को रोकने का कोई प्रबन्ध नहीं किया जा रहा. ये मानना बिलकुल न्यायसंगत है कि आज का बच्चा बहुत ही अधिक एडवांस हो चुका है बहुत – सी वे बातें जो दो दशक पूर्व के विद्यार्थियों को नही पता थी आज उन्हें पता हैं परन्तु हमने यह नहीं भुलाना चाहिए कि दो दशक पहले की स्थिति और आज की स्थिति में बहुत अंतर आ चुका है. जो नए नए आविष्कार हुए है निसंदेह आज का विद्यार्थी उनका उपयोग करना जानता हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ काल खण्ड पहले के विद्यार्थी यह सब नहीं जानते थे हमने यह कभी भी नहीं भुलाना चाहिए कि किसी भी आविष्कार या खोज में हमारे अतीत का बहुत बड़ा योगदान होता है आज जिन नई-नई वस्तुओं जैसे मोबाईल फोन, कम्प्यूटर, टेबलेटस आदि का निर्माण हुआ हैं उसे करने वाले दो दशक पूर्व के लोग ही थे ! ये सब वस्तुएं उन्हीं लोगो के द्वारा निर्मित और उपभुक्त हैं जिन्हें आज का विद्यार्थी निपट अनाड़ी समझने की भूल करता है. बच्चे की इस अवधारणा के पीछे क्या कारण हैं हमें इनके उत्तर तलाशने हैं. आज का बच्चा यधि अपने माता पिता और अध्यापक की अवहेलना करता है तो इसका कारण भी हमें ही तलाशना होगा. यदि आज का बच्चा इतना अधिक उग्र और उत्तेजित है तो इसका कारण हम और हमारा समाज ही है. बच्चे की यह कोमलता (सेंसिविटी) आज उसके लिए खतरनाक साबित हो रही है. इस पर अंकुश लगाया जाना बेहद जरूरी है. माता – पिता बच्चे को लाड प्यार के बहाने गलत राह पर न जाने दें थोडा कठोर होना जरूरी भी है और इसकी आवश्यकता भी है.

तीसरे हम कह सकते हैं कि आज का विद्यार्थी अपने पूर्ववर्ती विद्यार्थियों से बहुत आगे है पर क्या हम यह नही भूल जाते कि भविष्य का निर्माण अतीत के गर्भ में ही होता है? क्या हमें आज की इस पीढ़ी को अपने वे पुराने संस्कार याद नहीं कराने चाहियें जिनके कारण यह आज इतना इतराता फिरता है. कौन करेगा यह कार्य? इस प्रश्न का उत्तर तो पाठकों को स्वयं ही खोजना होगा

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